सो कलिकाल कठिन उरगारी।पाप परायन सब नरनारी।
अर्थ : कलियुग का समय बहुतकठिन है।इसमें सब स्त्री पुरूस पाप में लिप्त रहते हैं।
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ।
अर्थ : कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया है।
धर्म ग्रथों का लोप हो गया है।
घमंडियों ने अपनी अपनी बुद्धि में कल्पित रूप से अनेकों पंथ बना लिये हैं।
भए लोग सब मोहबस लेाभ ग्रसे सुभ कर्म
सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म।
अर्थ : सब लोग मोहमाया के अधीन रहते हैं।
अच्छे कर्मों को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है।
भगवान के भक्तों को कलियुग के धर्मों को जानना चाहिये।
बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।श्रुति बिरोध रत सब नर नारी।
द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन।
अर्थ : कलियुग में वर्णाश्रम का धर्म नही रहता हैं।चारों आश्रम भी नहीं रह जाते।
सभी नर नारी बेद के बिरोधी हो जाते हैं।ब्राहमण वेदों के विक्रेता एवं राजा प्रजा के भक्षक होते हैं।
वेद की आज्ञा कोई नही मानता है।
मारग सोइ जा कहुॅ जोइ भावा।पंडित सोइ जो गाल बजाबा।
मिथ्यारंभ दंभ रत जोईं।ता कहुॅ संत कहइ सब कोई।
अर्थ : जिसे जो मन को अच्छा लगता है वही अच्छा रास्ता कहता है।
जो अच्छा डंंग मारता है वही पंडित कहा जाता है।
जो आडंबर और घमंड में रहता है उसी को लोग संत कहते हैं।
सोइ सयान जो परधन हारी।जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूॅठ मसखरी जाना।कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।
अर्थ : जो दूसरों का धन छीनता है वही होशियार कहा जाता है।
घमंडी अहंकारी को हीं लोग अच्छे आचरण बले मानते हैं।
बहुत झूठ बोलने बाले को हीं-हॅसी दिलग्गी करने बाले को हीं गुणी आदमी समझा जाता है।
निराचार जो श्रुतिपथ त्यागी।कलिजुग सोइ ग्यानी सो विरागी
जाकें नख अरू जटा बिसाला ।सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
अर्थ : हीन आचरण करने बाले जो बेदों की बातें त्याग चुके हैं
वही कलियुग में ज्ञानी और वैरागी माने जाते हैं।
जिनके नाखून और जटायें लम्बी हैं-वे कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी हैं।
असुभ वेस भूसन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।
अर्थ : जो अशुभ वेशभूसा धारण करके खाद्य अखाद्य सब खाते हैं
वे हीं सिद्ध योगी तथा कलियुग में पूज्य माने जाते हैं।
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ
मन क्रम वचन लवार तेइ वकता कलिकाल महुॅ।
अर्थ : जो अपने कर्मों से दूसरों का अहित करते हैं उन्हीं का गौरव होता है और वे हीं इज्जत पाते हैं।
जो मन वचन एवं कर्म से केवल झूठ बकते रहते हैं वे हीं कलियुग में वक्ता माने जाते हैं।
नारि बिबस नर सकल गोसाई।नाचहिं नट मर्कट कि नाई।
सुद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।मेलि जनेउ लेहिं कुदाना।
अर्थ : सभी आदमी स्त्रियों के वश में रहते हैं और बाजीगर के बन्दर की तरह नाचते रहते हैं।
ब्राहमनों को शुद्र ज्ञान का उपदेश देते हैं और गर्दन में जनेउ पहन कर गलत तरीके से दान लेते हैं।
सब नर काम लोभ रत क्रोधी।देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी।भजहिं नारि पर पुरूस अभागी।
अर्थ : सभी नर कामी लोभी और क्रोधी रहते हैं।देवता ब्राहमण वेद और संत के विरोधी होते हैं।
अभागी औरतें अपने गुणी सुंदर पति को त्यागकर दूसरे पुरूस का सेवन करती है।
सौभागिनीं विभूसन हीना।विधवन्ह के सिंगार नवीना।
गुर सिस बधिर अंध का लेखा।एक न सुनइ एक नहि देखा।
अर्थ : सुहागिन स्त्रियों के गहने नही रहते पर विधबायें रोज नये श्रृंगार करती हैं।
चेला और गुरू में वहरा और अंधा का संबंध रहता है।
शिश्य गुरू के उपदेश को नही सुनता
और गुरू को ज्ञान की दृश्टि प्राप्त नही रहती है।
हरइ सिश्य धन सोक न हरई।सो गुर घोर नरक महुॅ परई
मातु पिता बालकन्हि बोलाबहिं।उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
अर्थ : जो गुरू अपने चेला का धन हरण करता है लेकिन उसके
दुख शोक का नाश नही करता-वह घेार नरक में जाता है।
माॅ बाप बच्चों को मात्र पेट भरने की शिक्षा धर्म सिखलाते हैं।
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं विप्र गुर घात।
अर्थ : स्त्री पुरूस ब्रह्म ज्ञान के अलावे अन्य बात नही करते लेकिन लोभ में
कौड़ियों के लिये ब्राम्हण और गुरू की हत्या कर देते हैं।
बादहिं सुद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु घाटि
जानइ ब्रम्ह सो विप्रवर आॅखि देखावहिं डाटि।
अर्थ : शुद्र ब्राम्हणों से अनर्गल बहस करते हैं।वे अपने को उनसे कम नही मानते।
जो ब्रम्ह को जानता है वही उच्च ब्राम्हण है ऐसा कहकर वे ब्राम्हणों को डाॅटते हैं।
पर त्रिय लंपट कपट सयाने।मोह द्रेाह ममता लपटाने।
तेइ अभेदवादी ग्यानी नर।देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।
अर्थ : जो अन्य स्त्रियों में आसक्त छल कपट में चतुर मोह द्रोह ममता में लिप्त होते हैं
वे हीं अभेदवादी ज्ञान कहे जाते हैं।कलियुग का यही चरित्र देखने में आता है।
आपु गए अरू तिन्हहु धालहिं।जे कहुॅ सत मारग प्रतिपालहिं।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका।परहिं जे दूसहिं श्रुति करि तरका।
अर्थ : वे खुद तो बर्बाद रहते हैं और जो सन्मार्ग का पालन करते हैं
उन्हें भी बर्बाद करने का प्रयास करते हैं।
वे तर्क में वेद की निंदा करते हैं और अनेकों जीवन तक नरक में पड़े रहते हैं।
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुइ्र्र गृह संपति नासी।मूड़ मुड़ाई होहिं संन्यासी।
अर्थ : तेली कुम्हार चाण्डाल भील कोल एवं कलवार जो नीच वर्ण के हैं
स्त्री के मृत्यु पर या घर की सम्पत्ति नश्ट हो जाने पर सिर मुड़वाकर सन्यासी बन जाते हैं।
ते विप्रन्ह सन आपु पुजावहि।उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
विप्र निरच्छर लोलुप कामी।निराचार सठ बृसली स्वामी।
अर्थ : वे स्वयं को ब्राम्हण से पुजवाते हैं और अपने हीं हाथों अपने सभी लोकों को बर्बाद करते हैं।
ब्राम्हण अनपट़ लोभी कामी आचरणहीन मूर्ख एवं
नीची जाति की ब्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी होते हैं।
सुद्र करहिं जप तप ब्रत नाना।बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा।जाइ न बरनि अनीति अपारा।
अर्थ : शुद्र अनेक प्रकार के जप तप व्रत करते हैं
और उॅचे आसन पर बैठकरपुराण कहते हैं।सबलोग मनमाना आचरण करते हैं।
अनन्त अन्याय का वर्णन नही किया जा सकता है।
भए वरन संकर कलि भिन्न सेतु सब लोग
करहिं पाप पावहिं दुख भय रूज सोक वियोग।
अर्थ : इस युग में सभी लोग वर्णशंकर एवं अपने धर्म विवेक से च्युत होकर
अनेकानेक पाप करते हैं तथा दुख भय शोक और वियोग का दुख पाते हैं।
बहु दाम सवाॅरहि धाम जती।बिशया हरि लीन्हि न रही बिरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही।कलि कौतुक तात न जात कही।
अर्थ : सन्यायी अपने घर को बहुुत पैसा लगाकर सजाते हैं
कारण उनमें वैराग्य नहीं रह गया है।उन्हें सांसारिक भेागों ने घेर लिया है।
अब गृहस्थ दरिद्र और तपस्वी धनबान बन गये हैं।कलियुग की लीला अकथनीय है।
कुलवंति निकारहिं नारि सती।गृह आनहि चैरि निवेरि गती।
सुत मानहि मातु पिता तब लौं।अबलानन दीख नहीं जब लौं।
अर्थ : वंश की लाज रखने बाले सती स्त्री को लोग घर से बाहर कर देते हैं और
किसी कुलटा दासी को घर में रख लेते हैं।
पुत्र माता पिता को तभी तक सम्मान देते हैं
जब तक उन्हें विवाहोपरान्त अपने स्त्री का मुॅह नहीं दिख जाता है।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें।रिपु रूप कुटुंब भये तब तें।
नृप पाप परायन धर्म नही।करि दंड बिडंब प्रजा नित हीं।
अर्थ : ससुराल प्यारी लगने लगती है और सभी पारिवारिक संबंधी शत्रु रूप हो जाते हैं।
राजा पापी हो जाते हैं एवं प्रजा को अकारण हीं दण्ड देकर उन्हें प्रतारित किया करते हैं।
धनवंत कुलीन मलीन अपी।द्विज चिन्ह जनेउ उघार तपी।
नहि मान पुरान न बेदहिं जो।हरि सेवक संत सही कलि सो।
अर्थ : नीच जाति के धनी भी कुलीन माने जाते हैं।
ब्राम्हण का पहचान केवल जनेउ रह गया है।
नंगे बदन का रहना तपस्वी की पहचान हो गई है।
जो वेद पुराण को नही मानते वे हीं इस समय भगवान के भक्त और सच्चे संत कहे जाते हैं।
कवि बृंद उदार दुनी न सुनी।गुन दूसक ब्रात न कोपि गुनी।
कलि बारहिं बार दुकाल परै।बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।
अर्थ : कवि तो झुंड के झुंड हो जायेंगें पर संसार में उनके गुण का आदर करने बाला नहीं होगा।
गुणी में दोश लगाने बाले भी अनेक होंगें।कलियुग में अकाल भी अक्सर पड़ते हैं
और अन्न पानी बिना लोग दुखी होकर खूब मरते हैं।
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेश पाखंड
मान मोह भारादि मद ब्यापि रहे ब्रम्हंड।
अर्थ : कलियुग में छल कपट हठ अभिमान पाखंड काम क्रोध लोभ और
घमंड पूरे संसार में ब्याप्त हो जाते हैं।
तामस धर्म करहिं नर जप तप ब्रत भख दान
देव न बरखहिं धरनी बए न जामहिं धान।
अर्थ : आदमी जप तपस्या ब्रत यज्ञ दान के धर्म तामसी भाव से करेंगें।
देवता पृथ्वी पर जल नही बरसाते हैं और बोया हुआ धान अन्नभी नहीं उगता है।
अबला कच भूसन भूरि छुधा।धनहीन दुखी ममता बहुधा।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्म रता।मति थोरि कठोरि न कोमलता।
अर्थ : स्त्रियों के बाल हीं उनके आभूसन होते हैं।उन्हें भूख बहुत लगती है।
वे धनहीन एवं अनेकों तरह की ममता रहने के कारण दुखी रहती है।
वे मूर्ख हैं पर सुख चाहती हैं।धर्म में उनका तनिक भी प्रेम नही है।
बुद्धि की कमी एवं कठोरता रहती है-कोमलता नहीं रहती है।
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं।अभिमान विरोध अकारनहीं।
लघु जीवन संबतु पंच दसा।कलपांत न नास गुमानु असा।
अर्थ : लोग अनेक बिमारियों से ग्रसित बिना कारण घमंड एवं विरोध करने बाले अल्प आयु किंतु
घमंड ऐसा कि वे अनेक कल्पों तक उनका नाश नही होगा।ऐसा कलियुग का प्रभाव होगा।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा।नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहि तोश विचार न शीतलता।सब जाति कुजाति भए मगता।
अर्थ : कलियुग ने लोगों को बेहाल कर दिया है।लोग अपने बहन बेटियों का भी ध्यान नही रखते।
मनुश्यों में संतोश विवेक और शीतलता नही रह गई है।
जाति कुजाति सब भूलकर लोग भीख माॅगने बाले हो गये हैं।
इरिशा पुरूशाच्छर लोलुपता।भरि पुरि रही समता बिगता।
सब लोग वियोग विसोक हए।बरनाश्रम धर्म अचार गए।
अर्थ : ईश्र्या कठोर वचन और लालच बहुत बढ़ गये हैं और
समता का विचार समाप्त हो गया है।लोग विछोह और दुख से ब्याकुल हैं।
वर्णाश्रम का आचरण नश्ट हो गया है।
दम दान दया नहि जानपनी।जड़ता परवंचनताति घनी।
तनु पोशक नारि नरा सगरे।पर निंदक जे जग मो बगरे।
अर्थ : इन्द्रियों का दमन दान दया एवं समझ किसी में नही रह गयी है।
मूर्खता एवं लोगों को ठगना बहुत बढ़ गया है।
सभी नर नारी केवल अपने शरीर के भरण पोशन में लगे रहते हैं।
दूसरों की निंदा करने बाले संसार में फैल गये हैं।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुॅ एक प्रधान
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
अर्थ : धर्म के चार चरण सत्य दया तप और दान हैं जिनमें कलियुग में एक दान हीं प्रधान है।
दान जैसे भी दिया जाये वह कल्याण हीं करता है।
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