बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ स्तोतुं समुधत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् | बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-विम्ब- मन्यः क इच्छति
जनः सहसा ग्रहितुम् ||
अर्थात् :
देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये
तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा
करेगा? अर्थात् कोई नहीं|
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