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तुलसीदास के दोहे मित्रता पर



जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि विलोकत पातक भारी।
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना।


अर्थ : जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होते उन्हें देखने से भी भारी पाप लगता है।
अपने पहाड़ समान दुख को धूल के बराबर और मित्र के साधारण धूल समान
दुख को सुमेरू पर्वत के समान जानना चाहिये।


जिन्ह कें अति मति सहज न आई।ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा ।गुन प्रगटै अबगुनन्हि दुरावा।


अर्थ : जिनके स्वभाव में इस प्रकार की बुद्धि न हो वे मूर्ख केवल हठ करके हीं किसी से मित्रता करते हैं।
सच्चा मित्र गलत रास्ते पर जाने से रोक कर अच्छे
रास्ते पर चलाते हैं और अवगुण छिपाकर केवल गुणों को प्रकट करते हैं।


देत लेत मन संक न धरई।बल अनुमान सदा हित करई।
विपति काल कर सतगुन नेहा।श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।


अर्थ : मित्र लेन देन करने में शंका न करे।अपनी शक्ति अनुसार सदा मित्र की भलाई करे।
बेद के मुताबिक संकट के समय वह सौ गुणा स्नेह प्रेम करता है।अच्छे मित्र का यही गुण है।


आगें कह मृदु वचन बनाई। पाछे अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहिगत सम भाई।अस कुमित्र परिहरेहि भलाई।


अर्थ : जो सामने बना बना कर मीठा बोलता है और पीछे मन में बुराई रखता है तथा
जिसका मन साॅप की चाल समान टेढा है ऐसे खराब मित्र को त्यागने में हीं भलाई है।


सेवक सठ नृप कृपन कुमारी।कपटी मित्र सूल सम चारी।
सखा सोच त्यागहुॅ मोरें।सब बिधि घटब काज मैं तोरे।


अर्थ : मूर्ख सेवक कंजूस राजा कुलटा स्त्री एवं कपटी मित्र सब शूल समान कश्ट
देने बाले होते हैं।मित्र पर सब चिन्ता छोड़ देने परभी वह सब प्रकार से काम आते हैं।


सत्रु मित्र सुख दुख जग माहीं।माया कृत परमारथ नाहीं।


अर्थ : इस संसार में सभी शत्रु और मित्र तथा सुख
और दुख माया झूठे हैं और वस्तुतः वे सब बिलकुल नहीं हैं।


सुर नर मुनि सब कै यह रीती।स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती।


अर्थ : देवता आदमी मुनि सबकी यही रीति है कि सब अपने स्वार्थपूर्ति हेतु हीं प्रेम करते हैं।


 


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