सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः| प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं नाभ्येति किं निज-शिशोः
परिपालनार्थम् ||
अर्थात् :
हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी
शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
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