स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्| धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रं तं `मानतुंगमवशा`
समुपैति लक्ष्मीः|
अर्थात् :
हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप,
रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को
स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
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