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भगवद् गीता श्लोका


यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते । सर्वसङ्‍कल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥6.4॥

 भावार्थ :
जिस काल में न तो इन्द्रियों के भोगों में और न कर्मों में ही आसक्त होता है, उस काल में सर्वसंकल्पों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है ।

तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्। स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥6.23॥

 भावार्थ :
जो दुःखरूप संसार के संयोग से रहित है तथा जिसका नाम योग है, उसको जानना चाहिए। वह योग न उकताए हुए अर्थात धैर्य और उत्साहयुक्त चित्त से निश्चयपूर्वक करना कर्तव्य है ।

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥3.17॥

 भावार्थ :
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है ।

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु । तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌ ॥3.29॥

 भावार्थ :
प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करेै ।

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