साधो रसनि रटनि मन सोई।
लागत-लागत लागि गई जब, अंत न पावै कोई॥
कहत रकार मकारहिं माते, मिलि रहे ताहि समोई।
मधुर-मधुर ऊँचे को धायो, तहाँ अवर रस होई॥
दुइ कै एक रूप करि बैठे, जोति झलमती होई।
तेहि का नाम भयो सतगुरु का, लीह्यो नीर निकोई॥
पाइ मंत्र गुरु सुखी भये तब, अमर भये हहिं वोई।
'जगजीवन' दुइ करतें चरन गहि, सीस नाइ रहे सोई॥
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