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Showing posts from March, 2019

नात्यद् भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः

नात्यद् भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ! भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः | तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति|| अर्थात् : हे जगत् के भूषण! हे प्र...

आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं त्वत्सड्कतथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति

आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं त्वत्सड्कतथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति | दूरे सहस्र किरणः कुरुते प्रभैव पध्माकरेषु जलजानि विकासभाज्जि|| अर्थात् : सम्पूर्ण दोषों से रहित ...

मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद- मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात्

मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद- मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् | चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु मुक्ता-फलधुतिमुपैति ननूद-बिन्दुः || अर्थात् : हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन...

त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम्

त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् | आक्रान्त-लोकमति-नीलमशेषमाशु सूर्याशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् || अर्थात् : आपकी स्तुति से, प...

अल्प-श्रुतं श्रुतंवतां परिहास-धाम त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम्

अल्प-श्रुतं श्रुतंवतां परिहास-धाम त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् | यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतुः|| अर्थात् : विद्वानों की हँसी ...

सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः

सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः | प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् || अर्थात् : हे मु...

वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाड्क-कान्तान् कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया

वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाड्क-कान्तान् कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया| कल्पान्त-काल-पवनोद्ध-नक्र-चक्रं को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् || अर्थात् : हे गु...

बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ स्तोतुं समुधत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम्

बुद्धया विनापि विबुधार्चित-पाद-पीठ स्तोतुं समुधत-मतिर्विगत-त्रपोऽहम् | बालं विहाय जल-संस्थितमिन्दु-विम्ब- मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहितुम् || अर्थात् : देवों के द्वारा ...

यः संस्तुतः सकल-वाड्मय-तत्व-बोधा- दुद् भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथेः

यः संस्तुतः सकल-वाड्मय-तत्व-बोधा- दुद् भूत-बुद्धि-पटुभिः सुर-लोक-नाथेः | स्तोत्रैर्जगत् त्रितय-चित-हरैरुदारेः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रनम् || अर्थात् : सम्पू...

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा- मुघोतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्

भक्तामर-प्रणत-मौलि-मणि-प्रभाणा- मुघोतकं दलित-पाप-तमो-वितानम्। सम्यक्-प्रणम्य जिन-पाद-युगं युगादा- वालम्बनं भव-जले पततां जनानाम् || अर्थात् : झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़...

उदये सविता रक्तो रक्त:श्चास्तमये तथा

उदये सविता रक्तो रक्त:श्चास्तमये तथा। सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता॥ अर्थात् : उदय होते समय सूर्य लाल होता है और अस्त होते समय भी लाल होता है, सत्य है महापुरुष सुख और द...

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्

(श्री भगवानुवाच ) असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् | अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्येते || अर्थात् : ( श्री भगवान् बोले ) हे महाबाहो ! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश म...

चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्

( अर्जुन उवाच ) चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् | तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् || अर्थात् : ( अर्जुन ने श्री हरि से पूछा ) हे कृष्ण ! यह मन चंचल और प्रमथन स्वभाव ...

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम्

सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् | वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः || अर्थात् : अचानक ( आवेश में आ कर बिना सोचे समझे ) कोई कार्य नहीं करना चाहिए कयों...

विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च

विद्या मित्रं प्रवासेषु ,भार्या मित्रं गृहेषु च | व्याधितस्यौषधं मित्रं , धर्मो मित्रं मृतस्य च || अर्थात् : ज्ञान यात्रा में ,पत्नी घर में, औषध रोगी का तथा धर्म मृतक का ( सबसे ब...

पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम्

पुस्तकस्था तु या विद्या ,परहस्तगतं च धनम् | कार्यकाले समुत्तपन्ने न सा विद्या न तद् धनम् || अर्थात् : पुस्तक में रखी विद्या तथा दूसरे के हाथ में गया धन—ये दोनों ही ज़रूरत के सम...

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन

श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुंडलेन , दानेन पाणिर्न तु कंकणेन , विभाति कायः करुणापराणां , परोपकारैर्न तु चन्दनेन || अर्थात् : कानों की शोभा कुण्डलों से नहीं अपितु ज्ञान की बातें सु...

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् | परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् || अर्थात् : महर्षि वेदव्यास जी ने अठारह पुराणों में दो विशिष्ट बातें कही हैं | पहली –परोपकार करना प...

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्

अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् | अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है ; ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है;इसके विपरीत उदारच...

चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः

चन्दनं शीतलं लोके ,चन्दनादपि चन्द्रमाः | चन्द्रचन्दनयोर्मध्ये शीतला साधुसंगतिः || अर्थात् : संसार में चन्दन को शीतल माना जाता है लेकिन चन्द्रमा चन्दन से भी शीतल होता है | अ...

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं

जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं , मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति | चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं , सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् || अर्थात्: अच्छे मित्रों का सा...

बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः

बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः | श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः || अर्थात् : जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ , धनवान...

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्

यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् | एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति || अर्थात् : जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो स...

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः

आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || अर्थात् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | पर...

अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम्

अलसस्य कुतो विद्या , अविद्यस्य कुतो धनम् | अधनस्य कुतो मित्रम् , अमित्रस्य कुतः सुखम् || अर्थात् : आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को स...

तुलसीदास के दोहे मित्रता पर

जे न मित्र दुख होहिं दुखारी।तिन्हहि विलोकत पातक भारी। निज दुख गिरि सम रज करि जाना।मित्रक दुख रज मेरू समाना। अर्थ :  जो मित्र के दुख से दुखी नहीं होते उन्हें देखने से भी भा...

तुलसीदास के दोहे

सो कलिकाल कठिन उरगारी।पाप परायन सब नरनारी। अर्थ :  कलियुग का समय बहुतकठिन है।इसमें सब स्त्री पुरूस पाप में लिप्त रहते हैं। कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भये सदग्रंथ दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ। अर्थ :  कलियुग के पापों ने सभी धर्मों को ग्रस लिया है। धर्म ग्रथों का लोप हो गया है। घमंडियों ने अपनी अपनी बुद्धि में कल्पित रूप से अनेकों पंथ बना लिये हैं। भए लोग सब मोहबस लेाभ ग्रसे सुभ कर्म सुनु हरिजान ग्यान निधि कहउॅ कछुक कलिधर्म। अर्थ :  सब लोग मोहमाया के अधीन रहते हैं। अच्छे कर्मों को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है। भगवान के भक्तों को कलियुग के धर्मों को जानना चाहिये। बरन धर्म नहिं आश्रम चारी।श्रुति बिरोध रत सब नर नारी। द्विज श्रुति बेचक भूप प्रजासन।कोउ नहिं मान निगम अनुसासन। अर्थ :  कलियुग में वर्णाश्रम का धर्म नही रहता हैं।चारों आश्रम भी नहीं रह जाते। सभी नर नारी बेद के बिरोधी हो जाते हैं।ब्राहमण वेदों के विक्रेता एवं राजा प्रजा के भक्षक होते हैं। वेद की आज्ञा कोई नही मानता है। मारग सोइ जा कहुॅ जोइ भावा।पंडित सो...

THE ART OF DRAWING

Ronnie, a small boy was very fond of drawing but his father didn't allow him to do so. One day he was sitting on a windowsill when he saw a red car parked outside his house. He made a sketch of it. Next day, the police came to his house to enquire about a red car that belonged to a gangster. Ronnie showed them his sketch from which the police got the information about the model of the car and its number too.  After few days, the police came and said that because of Ronnie's sketch, the gangster was caught. Ronnie's father praised him and then never stopped him from drawing. The End..